मोहिता जगदेव
उग्र प्रभा समाचार,छिंदवाड़ा
काव्य संग्रह आव्हान
कवि - रामलाल सराठे "रश्मि"
समीक्षक: प्रो. अमर सिंह
तुमने जन्म दिया था, मुझको तुमने ही दी थी भाषा,
तुमने इस नश्वर जीवन को, दी अमृत की अभिलाषा।
एक बार फिर जनक जननि हे! हम सबको कृत कृत्य करो,
छन्द, शब्द, रस, अलंकारमय, आव्हान स्वीकार करो।"
उग्र प्रभा समाचार ,छिंदवाड़ा : छिंदवाड़ा की सृजनधर्मी धरा पर अपने काव्य कौशल की आभा के कुशल चितेरे वरिष्ठ कवि रामलाल सराठे "रश्मि" का बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित "आह्वान" शीर्षक से सुसज्जित काव्य संग्रह अपने कलेवर में काव्य की लगभग सभी विधाओं का मिश्रित संकलन है। "आह्वान" में सृजनकर्ता ने जीवन जीने के खुशी के विकल्प रूपी सिक्के फेंककर लोक को अभिप्रेरित करने का भरपूर प्रयास किया है। समूचे काव्य संग्रह में कवि ने जोर दिया है कि खुशी चुनने का विकल्प हमारे पास होता है। सृजन की अभिव्यक्ति से अनुभव टपकता है, जिससे व्यष्टि से समष्टि में समा जाने का भाव प्रबल होता है। इसे लोकमूल्यों का कोष भी कहा जाता है।
रश्मिजी ने कविता अव्यक्त को व्यक्त करने एवं अमूर्त को मूर्त रूप देने का माध्यम भी कहा जाता है। जहां प्रकृति ईश्वर की अभिव्यक्ति होती है, वहीं कविता प्रकृति की। काव्य दर्शन असमानता, अन्याय और अमानवीयता के विरुद्ध विरोध की शालीनता भरी आवाज होती है। कविता गहरे आवेगों के आलोड़नों के बीच से निकलकर जनमानस के उत्थान हेतु गहन सृजन से सार्थकता प्रदान करती है।
कविता सौंदर्य के अमूर्त सार की अभिव्यक्ति होती है, यह पीड़ाओं से उपजे रीतेपन को भरने का जरिया बनती है। कविता लिहाज, संकोच एवं भय के कारण अव्यक्त को व्यक्त करती है। इसको करुणा, सहानुभूति और समानानुभूति की ऊर्ध्वगामी चेतना का प्रबोधन भी करार दिया गया है। कविता स्वनिर्मित बंधनों में अटके मनुष्य के लिए मुक्तिपथ के शिखर के दर्शन कराती है। कविता लिखना खुद को लिखना होता है, और दूसरों के जख्मों को खुद की छाती पर महसूस करना होता है। कविता अपने जख्मों के आइने में दुनिया को देखना होता है। कविता नैतिक अनैतिक की अनिश्चयात्मकता से आगे एक मानवीय अनिश्चय के बीच स्वयं को टटोलना भी होता है। उपरोक्त सभी उद्देश्यों को अपने काव्य संग्रह के संदेश के केंद्र में रखकर रश्मिजी ने अपने जीवन के कीमती वक्त का निवेश किया है, कोई भी सुधी पाठक आपके सर्जनात्मक प्रयासों की सार्थकता को गुणवत्तापूर्ण कविताओं का रसास्वादन करके सहज स्वीकार करने को विवश हो जाता है।
रश्मिजी ने अपने काव्य संग्रह में कविता लिखने के पीछे की नकारात्मक दुर्भावनाओं से स्वयं को काफी दूर रखा है। अकसर ऐसा भी होता है कि कवि की कविता न्याय के नाम पर अत्याचारी भी हो जाती है और किसी बुलडोजर की तरह वैध निर्माणों को भी ढहाने लगती है, बिना यह जाने कि छोटे छोटे सपनों के घर कितनी मामूली किंतु मूल्यवान सांसों के बसेरे होते हैं। वस्तुपरक कविता किसी को नीचा दिखाने, विचार के चाबुक से किसी की पिटाई करने और अपने आग्रह को किसी सार्वभौमिक सत्य की तरह थोपने के लिए नहीं होती है। कविता अनुभव, स्मृति, संवेदना और विवेक की साझा संतान होती है। स्मृति से जो मिलता है, संवेदना उसे ग्रहण करती है और विवेक उसमें ग्राहय अग्राह्य छांटकर अलग कर देता है।
कविता अनुभूत सत्य होती है जिसे प्रामाणिकता के लिए अनुभवों की कसौटी पर कसना पड़ता है। कवि के प्रामाणिक अनुभव ही विश्वसनीय होते हैं। अनुभव की गरिमा को अर्जित मूल्य की तरह सहेजते रहना चाहिए, न कि उसे तलवार बनाकर दूसरों के सिर काटने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। कविता लिखने में जिन सावधानियों को अमल में लाया जाना चाहिए, उन सब पर ध्यान देकर रश्मिजी ने इस काव्य संग्रह को एक नैसर्गिक दस्तावेज बनाने की भरपूर कोशिश की है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
कविता कण में विश्वदर्शन कराती है, जंगली पुष्प में स्वर्ग की महक का आभास कराती है, हथेली पर अनंत को समाने की क्षमता देती है और क्षणभर में शाश्वता के दर्शन करा देती है। कविता आगामी फसल की वह चिंता होती है, जिसमें आत्मा की खुराक और संपूर्ण कायनात को संरक्षित करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेती है। कविता आगाह करती है कि वक्त की अदालत में कोई भी बच नहीं सकता है। कविता नफरत की फ़िज़ां में प्यार के अनुबंध स्थापित करती है और अमर्यादित आचरण पर लगाम लगाकर गुनहगार को निर्वस्त्र कर देती है। कविता में पैसा नहीं होता है और पैसे में कविता नहीं होती है। कविता तमीज, तहजीब और सलीका परोसती है। उपरोक्त सभी उद्देश्यों को अपने जहन में रखकर रची गई काव्य संग्रह की सभी कविताएं अपने उद्देश्य पर टिके रहने के कारण कवि को प्रशंसा का पात्र बना देती हैं।
रश्मिजी अपने निजी स्वभाव में जिन खूबियों को संजोकर अपने व्यक्तित्व को अभूतपूर्व बनाते हैं, उनमें उनकी शालीनता, सज्जनता और विनम्रता लोगों पर अपना जादुई प्रभाव छोड़ती है। शालीनता कविता के परिधान होता है। अगर कवि ईमानदार है तो विषय अपनी भाषा का चुनाव स्वयं ही कर लेता है। कवि का दर्शन ढहते हुए किले की आखिरी ईंट को बचाने की कोशिश होती है। कविता के दर्शन में न तो बौद्धिकता और न ही अति भक्ति होनी चाहिए। मूलतः कविता लोकजागरण का जरिया होती है और हाशिए के लोगों के लिए आंदोलन का काम करती है। कोई भी रचना अपने रचनाकार से कभी परे नहीं हो सकती है। किसी भी रचना का आखिरी विस्तार रचनाकार की समग्र सोच का विस्तार होता है। यही सब कर दिखाया है रश्मिजी ने अपने काव्य संग्रह में व्यवहार में लाकर, जिसकी भूरि भूरि तारीफ होनी ही चाहिए।
रश्मिजी के काव्य संग्रह में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की यह उक्ति चरितार्थ होती है कि जहां हृदय में ईमान का जज्बा होता है, वहां चरित्र में सुंदरता होती है। जहां चरित्र में सुंदरता होती है, वहां घरों में एकरूपता होती है और जहां घरों में एकरूपता होती है, वहां राष्ट्र में अनुशासन होता है। प्रस्तुत काव्य संग्रह में यह सब सर्वत्र दिखाई देता है।
सृष्टि देवताओं की ऐसी सुंदर व अद्भुत कविता होती है, जो न कभी बूढ़ी होती है और न कभी मरती है। काव्य रस सिन्धु में गोते लगाने वाला तैरने के साथ स्वयं तरने की भी कला सीख जाता है। यही है देह में रहकर देह के बंधनों से मुक्त हो जाना। कविता का रोमांच पाठक के रोम रोम में दीप प्रज्वल कर देता है। भाषा तमस को दूर भगाने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? कवि की अंधेरे को दूर करने की एक बागी देखिए:
"हर एक अंजुरीभर तमस को उलीचें, दीवाली हो जाएं अक्षर के दीपक,
कुहासों में लिपटी हुई बेबसी को, चलो हम दिखा दें अक्षर के दीपक।"
रश्मिजी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के राज्यासन पर आसीन करने का भरसक प्रयास किया है। हर अगली कविता में अंतर के तमस से लड़ने का भाव और गहरा होता चला जाता है। तभी तो कवि की कलम को झांसी की रानी का गर्जन, टीपू की तलवार, मंगल पांडे की चिनगारी, राणा की ललकार, गांधी का सत्य अहिंसा, गीता का गान, राणा सांगा का भाला, गंगा की लहरें एवं नया शिवाला लिखने की दरकार है।
कवि रामलाल सराठे द्वारा अपने पौत्र आव्हान के हस्ते अपने मां बाप को आभार स्वरूप अर्पित इन शब्दों से अधिक और अधिक खूबसूरत कुछ और हो ही नहीं सकता है:
"तुमने जन्म दिया था, मुझको तुमने ही दी थी भाषा,
तुमने इस नश्वर जीवन को, दी अमृत की अभिलाषा।
एक बार फिर जनक जननि हे! हम सबको कृत कृत्य करो,
छन्द, शब्द, रस, अलंकारमय, आव्हान स्वीकार करो।"
कवि युग शिल्पी होता है और पावन छवि गढ़ता है जो ललाम होती है और उद्दाम भी। प्रस्तुत काव्य संग्रह में रश्मिजी की कविताएं "गणपति वंदना" और "गुरू वंदना" में कवि देश धरा से तिमिर हटाने का आकांक्षी है तथा धरा पर जो कुछ भी अपावन है, उसको हटाने की वंदना करता है। कवि की कविता उसकी सहगामिनी है, जो रोती पवन को मुस्कराने हेतु लोरी है, इसमें लिपटी भावप्रवणता से पाषाण हृदय व्यक्ति भी अश्रुपूरित हो उठता है। "दीपक जलाएं" कविता तम को हटाने, दुखियारे के आंसू पोंछने, ग़मगीनों के अधरों पर मुस्कान लाने और निर्वसनों को वस्त्र उढ़ाने की कविता है। कवि का यह कथन स्वयं में बेहद बेजोड़ है कि हर किसी की दुर्दशा का कोई न कोई जिम्मेदार अवश्य होता है। तभी तो कवि हर किसी के जीवन में मां के असीम त्याग के बारे में लिखता है:
"तोड़कर निजवदन, शिशु को पय पिलाती,
अपमान सहकर भी ममता लुटाती है। "
"अक्षर के दीपक" कविता कुहासे में लिपटी हुई बेबसी को जगमगाने का आवाहन है, भटकती राहें, सिमटती आकांक्षाएं जहां हैं, वहां उम्मीद जगाने का आवाहन है और हर एक अंजुरी भर तमस को उलीच फेंकने का आवाहन है। कवि रामलाल सराठे वे दिवाकर हैं जिनके अक्षर की रश्मि वहां तक पहुंचने का प्रयास करती है, जहां अभी तक कोई आशा और उम्मीद की किरण नहीं पहुंची है। अक्षर के दीपक वहीं टिमटिमाने की सार्थक कोशिश है।
" मेंहदी के हाथ" कविता में कवि ने मेंहदी के हाथों की तुलना में मटमैले श्रम सीकर से सने हाथों को बेहतर बताया है क्योंकि ये ही हाथ ताजमहल बनाते हैं, जिसके अंतःस्थल में मुमताज को पनाह मिलती है। "कारे मेघा पानी दे" कविता में जल के अभाव में तड़पती धरा का सजीव चित्रण प्रस्तुत है:
"खेत सूखते फटती धरती, क्रूर किरण हरियाली हरती,
छाया ढूंढें पथिक, कोयलें कुहू कुहू कर आहें भरती,
तपन शांत कर खगवृंदों की, करने को मनमानी दे।"
"आने में बड़ी देर लगी " कविता में कवि ने साफ संदेश दिया कि की हर चीज का एक वक्त होता है, उसमें देरी होने के दुष्परिणाम हमें भुगतने ही पड़ते हैं:
" पैदा शैतान तो किए अपनी ही तालीमों ने,
उन्हें इंसान बनाने में बड़ी देर लगी,
सीख औरों को उनने भी बहुत दी थी लेकिन,
उसको खुद ही निभाने में बड़ी देर लगी।"
"मजदूर" कविता में मजदूर की मजबूरियों के कारण बढ़ते आक्रोश को बयां किया है। मजदूर जग का पेट भरने को फसल उगाता है, पर विडंबना यह है कि वह स्वयं क्षुधा शांत करने को मजबूर है। मजदूर के अपने ही कुछ एहसास होते हैं।
"हौसला" कविता में जीवन में हर तरफ से निराश हो चुके लोगों के लिए उम्मीद का दामन कभी न छोड़ने को कवि ने एक बेहतरीन अंदाज में चित्रित किया है:
"तू समझे क्यों, तम को ही अपना बसेरा,
बाजुओं में दम है, कुछ न विषम है,
बदल दे तू अपने करों की लकीरें,
दिखा जग को गति, नव दिशा इन परों की।"
"वर्षा के गीत" कविता में मानसून की सौगात को कुछ यों शब्द दिए गए हैं:
"मेढ़ों में, खेतों में, नदिया की रेतों में,
पगडंडी खेतों में, आज मची कीच।"
"ग्राम्या" कविता में जीवन संघर्षों से जूझकर व्यक्ति के पुनः तूफानों का सामना करने को तैयार होने को कवि ने एक नए अंदाज में प्रस्तुत किया है:
"छोटा सी जीवन किश्ती ने, तूफान अनेकों पार किए, रश्मि प्रकृति ने ग्राम्या पर, काम करोड़ों वार किए।"
"सारा सागर " कविता में कवि ने भविष्य के सुनहरे सपनों के साकार होने के लिए ईश्वर से कामना की है:
"मुक्त उड़ानों की फिर कोई, रूढ़ि न पहरेदार बने,
दबी किताबें ज्ञान सिंधु की, तूफां में पतवार बने,
सारा सागर ले लो हमसे , हमें हमारा कल दे दो।"
"प्रियतम" कविता में कवि ने भौतिक युग में आत्मकेंद्रित होते मनुष्य के आपसी रिश्तों में जो दरारें आई हैं, उसके कारण पर करारा प्रहार कुछ यों किया है:
" बंटते बंटते आज रिश्ते, बहुत छोटे हो गए हैं,
बढ़ते बढ़ते अब हवस के, पांव मोटे हो गए हैं।"
"कुष्ठ निवारण" कविता में कवि ने कुष्ठ रोगी के मार्फत समाज में मनुष्यता के अभिशप्त होने और कुष्ठ रोगी के प्रति सामाजिक तिरस्कार की भावना पालने को लेकर अपनी बात कही है कि जीने का अधिकार सभी को है, प्रेम हर प्राणी की आवश्यकता है, इसकी धारा कभी रुकनी नहीं चाहिए:
"अपनी इस पावन धरती से, कुष्ठ का नाम मिटा दें हम।
प्रेम की गंगा की हर दिल में, धार बहाते चलो।"
"मतदाता जागरण" कविता में कवि का कहना है कि हर व्यक्ति भले ही उसकी कोई खास हैसियत न हो, वह भी लोकतंत्र का सजग प्रहरी है। लोकतंत्र के महायज्ञ में सबको अपनी आहुति देने का हक है। झूठे वादे और प्रलोभनों से लोकतंत्र कमजोर होता है। समाज में मनुष्य का गैरबराबरी की असम्मानजनक स्थिति से गुजरना विकसित सभ्यता पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है।
"मेरा ईश्वर" कविता में कवि का मजबूत तर्क है कि ईश्वर मनुष्य के अंदर किसी भी प्रकार के खालीपन को भर देता है। इसके लिए ईश्वर के अस्तित्व में गहरा विश्वास जरूरी है, न कि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे में रोजाना हाजिरी लगाना:
"मैं मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा क्यों जाऊं?
गर खाली होता कभी कभी मैं अंदर से,
तो सूनेपन को वे जो जगदीश्वर भरते हैं।"
कवि "मानवता" शीर्षक कविता में कवि का सबब है कि इंसानियत के विकास की प्रक्रिया में कभी भी कोताही न बरतने की मंशा जाहिर करता है, भले ही इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े:
"पतित मनुज को गले लगाओ, पवित्र प्रेम पियूष बहाकर"।
"दीपोत्सव की खुशी" कविता में कवि राष्ट्र के सांस्कृतिक सौष्ठव के तहत त्योहारों की महत्ता को उजागर करता हुआ इनमें खुशियां ढूंढ लेने पर को देता है। दुनिया में खुशी विषम परिस्थितियों का सामना करके ही प्राप्त की जा सकती है, विलासिता के सामानों से स्थाई खुशी कभी नहीं मिलती है:
"पर कुछ दीपक बुझते बुझते, अल्पदृव्य की भाषा कहते
कुछ बिन घृत बाती के रहते,
काल पवन के प्रबल वेग़ से,
कारा बनकर इन्हें बचावें।"
कवि का आदिम संस्कृति के साथ जी रहे वनवासी लोगों से गहरा लगाव है क्योंकि उनमें सब कुछ पाने की महत्वाकांक्षा नहीं होती है। कम में खुश रहना कोई इनसे सीखे:
"हम वनवासी वन्यधरा के, अपनी एक अलग पहचान,
पले अभावों में हम लेकिन, ओठों पर रहती मुस्कान।"
"बहिन का दर्द" कविता में कवि ने भारतीय संस्कृति में बहन भाई के रिश्तों में रक्षाबंधन के त्यौहार पर बहन द्वारा भाई को बांधी गई राखी के रक्षात्मक महत्व पर प्रकाश डाला है:
"कच्चे धागे में लिक्खी है, भैया मेरी पीर,
तेरी कलाई में देखूंगी, मैं अपनी तस्वीर।"
" नूतन वर्षाभिनंदन" कविता में कवि ने अभावों में भूखे पेट सो जाने वाले मनुष्य समुदाय के लिए ईश्वर से प्रार्थना कुछ इस तरह की है:
"हर कर में होगा काम यहां, हर उदर में रोती जाएगी।"
"शहीदों को भावांजलि" कविता में कवि ने हम सभी से गुजारिश की है कि हम शहीदों को वापस नहीं ला सकते हैं किन्तु अपनी ममता से घावों को कुछ हद तक तो भर सकते हैं " उनकी आत्मा के घावों को, निज ममता से सहला दें हम"। वहीं "कारगिल में शहीद अमर जवानों को श्रद्धा सुमन" कविता में कवि ने शहीदों की बहनों की करुण पुकार को अपने काव्य मर्म से कुछ यों व्यक्त किया है:
"हो बगिया तिमिरमुक्त उनकी, इक नन्हा दीप जला दें हम,
देकर के जेवर अर्घ्य कई, नववधुएं तुम्हें दुलार रहीं, बांध कलाई पर राखी, ये बहिनें तुम्हें पुकार रहीं।"
"मेजर अमित ठेंगे की शहादत को नमन" कविता में कवि ने आतंकवाद के समाप्त होने की उम्मीद अभी नहीं छोड़ी है और विश्वास जताया है कि अंत में सत्य की विजय अवश्य होगी:
"का पुरुषों का कर्म यही, पीछे से घात किया करते,
छीलेगी छल की छाती को, कब तक न सत्यता की गोली,
आतंकी बर्बरताओं की, अब युग जलवायेगा होली।"
जो लोग गहराई से प्रेम करने में सक्षम होते हैं, वे ही गहरे दुःख के अनुभव महसूस करने में सफल होते हैं। इन्हीं गहराई से अनुभव की गई संवेदनाओं को वरिष्ठ कवि रामलाल सराठे रश्मि ने अपने काव्य संग्रह आह्वाहन में शब्दों में पिरोकर संजोया है। आशा है कवि की यह कृति उनके जीवन की सफलता की सीढ़ियां चढ़ने में मील का पत्थर अवश्य साबित होगी। काव्य संग्रह में संकलित सभी 82 कविताएं स्वयं में जो जीवन दर्शन अपने में समाहित किए हैं, वे किसी भी पाठक को एक संतुलित जीवन जीने के लिए मार्गदर्शन दे सकती हैं। इन सभी कविताओं को अगर विषयवस्तु के अनुसार विभाजित किया जाए तो एक की जगह तीन कविता संग्रह भी निकल सकते थे।
इस काव्य संग्रह की कुछ एक कविताओं को पढ़कर मैंने अपनी समीक्षात्मक अभिव्यक्ति दी है। सभी कविताओं के बारे में अगर लिखने लगूं तो समीक्षा की एक नई किताब बन जाएगी। रश्मिजी को इस काव्य संग्रह को तैयार करने में अपनी समूची जवानी खपा देने हेतु अनेकानेक शुभकामनाएं। रश्मिजी इस काव्य संग्रह के जरिए इंसानियत निर्माण की यज्ञ में अपने हिस्से की आहुति देने में सिर्फ सफल ही नहीं हुए हैं, बल्कि धरा पर जमी असमानताओं की खाक को कुछ कम करने में कामयाब भी हुए हैं। सचमुच "आव्हान" सभी को सद्गति प्रदान करने का उल्लेखनीय दस्तावेज है।
आपका अपना,
प्रो. अमर सिंह, प्राचार्य शासकीय महाविद्यालय चांद छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश) M/7898740446