*पद-प्रतिष्ठा का त्याग ही सच्ची सामाजिकता है*
✍️ लेखक : नीलेश डेहरिया, प्रधान संपादक — उग्र प्रभा समाचार
समाज में सम्मान, पद और प्रतिष्ठा की चाह हर इंसान में होती है।लेकिन सच्ची सामाजिकता वहीं से शुरू होती है,जहाँ आदमी अपनी कुर्सी, माला और फोटो की भूख छोड़करजनसेवा के मैदान में बिना तामझाम उतरता है।आजकल पद के पीछे भागने वाले समाजसेवी इतने बढ़ गए हैंकि समाजसेवा अब सेवा नहीं, स्वार्थ का मंच बन चुकी है।कई लोग “सेवा” शब्द को ढाल बनाकर अपने नाम, पहचान और राजनीति का व्यापार चला रहे हैं।जिन्हें समाज के दुख नहीं, सेल्फी और सुर्खियों की फिक्र है।जो मंच से उतरते ही जनता से दूरी बना लेते हैं,वो समाजसेवी नहीं, समाज के ठेकेदार हैं।
*पद नहीं, सेवा से बनता है समाज*
संस्थाओं में पद की होड़ देखकर लगता है जैसे समाजसेवा नहीं,इलेक्शन चल रहा हो।लोग जनकल्याण से ज़्यादा “मंच पर कुर्सी” पाने की जुगाड़ में लगे रहते हैं।सच्चा समाजसेवी वह नहीं जो माइक पकड़कर भाषण दे,बल्कि वह है जो बिना नाम चाहे, किसी की मदद कर दे।
*“सामाजिकता” का असली अर्थ है*
दूसरों के दुःख को अपना समझना, औरबिना दिखावे के, बिना तामझाम के उनका साथ निभाना।आज स्थिति यह है कि मंच पर बैठने वालों को समाजसेवी कहा जाता है,और जो चुपचाप सेवा कर रहे हैं — वे “अदृश्य” रह जाते हैं।बड़ा चंदा देने वाला समाजसेवी कहलाता है,पर जो गरीब के घर जाकर उसकी तकलीफ़ बाँटता है,वह भीड़ में गुम हो जाता है।बिना स्वार्थ मन में निश्चल कपट के सिर्फ दुख समास्या को समाधान की खोज में निरंतर सेवा पर तन मन धन से समर्पण रहते। समाजसेवी हमेशा जरुरतमंद की खोज में रहता है सिर्फ मन में इंसानियत झलकती है।सामाजिक प्राणी सदैव समाज के उत्थान गहन चिंतन में विलीन रहता है। समाज का उद्दार के लिए विषय सामग्री चुनता रहता है। न की पद लेकर नाम के आगे पीछे लिखकर किसी प्रकार की ताकत अंहकार दिखाने में रहता न कि अपने समाज सेवा का बखान न समायवधि गिनाने न दूसरो से किसी की तुलना में न निंदा में न सर्वोच्च स्थान रखने पर सिर्फ समाजसेवी अपना स्थान अंतिम पंक्ति में रखता है।
🌼 सच्चा समाजसेवी कैसा होता है?
सच्चा समाजसेवी न प्रशंसा चाहता है,न आलोचना से दुखी होता है।न वह बुराइयाँ देखता है, न किसी से नाराज़ होता है।वह किसी मंच या फूल-माला की लालसा नहीं रखता।वह तो बस समाज के बीच एक आम नागरिक की तरह अपने कर्म में रमा रहता है।वह अपने काम का श्रेय नहीं लेता,न किसी और को नीचा दिखाने की चाह रखता है।उसकी पूजा जनता नहीं करती,लेकिन उसका सम्मान ईश्वर भी करता है।
🌟 त्याग ही सामाजिकता की आत्मा है
महात्मा गांधी, बाबा साहेब अंबेडकर, संत रविदास —इनके पास पद नहीं था, बल्कि उद्देश्य था।उन्होंने कुर्सी नहीं, कर्म चुना।आज के समाजसेवी उनसे सीख लें —जो सेवा आपको भीड़ से जोड़ दे, वही सम्मान है;और जो पद आपको लोगों से काट दे, वह सिर्फ अहंकार का ताज है।आज “त्याग” शब्द किताबों तक सिमट गया है।जो त्याग की बात करता है, उसे “नादान” कहा जाता है;और जो झूठे सम्मान के लिए भीड़ जुटाता है,उसे “लीडर” बना दिया जाता है।यही हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।💬
*समाज का नेतृत्व व्यवहार से होता है, पद से नहीं*
आज समाज को ऐसे लोगों की ज़रूरत हैजो “मैं कौन हूँ” नहीं, बल्कि “मैं किसके लिए हूँ” यह सोचें।लेकिन अफसोस —अधिकांश “समाजसेवी” सिर्फ मंच पर समाज के लिए हैं,मंच से उतरते ही अपने लिए हो जाते हैं।जो व्यक्ति सम्मान की भीख मांगता है,वह समाज का सेवक नहीं, सम्मान का व्यापारी है।सच्चा समाजसेवी कभी फोटो में नहीं दिखता,वह गाँव, गली, झुग्गी में दिखता है —जहाँ कोई कैमरा नहीं, बस इंसानियत होती है।
🔥 त्याग में ही अमरत्व है
इतिहास गवाह है —कुर्सी के भूखे लोग नाम के साथ मिट गए,पर जिन लोगों ने पद छोड़कर सेवा की,उनके नाम अमर हो गए।त्याग ही वह दीपक है जो समाज के अंधकार को चीरता है।जिसने अपने पद को समाज के लिए इस्तेमाल किया, वह प्रशंसा का हकदार है।पर जिसने पद को त्यागकर सेवा की —वह इतिहास का हिस्सा बन गया।
🕊️ निष्कर्ष
सामाजिकता का अर्थ है — स्वार्थ का अंत, और सेवा का आरंभ।पद और प्रतिष्ठा अस्थायी हैं,पर त्याग और सेवा अमर हैं।आज ज़रूरत है ऐसे समाजसेवियों की,जो अपने नाम से नहीं, अपने कर्म से पहचाने जाएँ।> “पद का गौरव त्याग में है,प्रतिष्ठा का मूल्य सेवा में है,और सामाजिकता का सौंदर्य निःस्वार्थता में है।”
🪶 उग्र प्रभा संपादकीय टिप्पणी:
समाज की सबसे बड़ी बीमारी है — पद का मोह।जो इसे त्याग देता है, वही सच्चा समाजसेवी है।बाकी सब बस “ढोंग” कर रहे हैं,सेवा नहीं — सेल्फी कर रहे हैं।
