"भाषाई प्रवाह के अवरुद्ध होते राष्ट्र अवनति के गर्त में जाता है": कुलपति प्रो.कपिल देव मिश्र
"भाषा राष्ट्र की संस्कृति के संस्कारों की संवाहिका होती है: प्रो. कपिल देव मिश्र
"भाषा मनुष्य को सृष्टि के ज्ञानकोष का अनुपम उपहार है": ललित निबंधकार श्रीराम परिहार
"हिंदी भाषा को रोमन लिपि में लिखना सबसे बड़ा पाप है": ललित निबंध कार प्रो. श्रीराम परिहार
"भाषिक प्रगति मानवीय संवेदनाओं से रिश्तों की बुनियाद सींचती है": प्रो. प्रीति सागर वर्धा अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
संवाददाता - मोहिता जगदेव
उग्र प्रभा समाचार ,छिंदवाड़ा: पी. जी. कॉलेज छिंदवाड़ा के युवा उत्सव विभाग द्वारा भाषा विचार और व्यक्तित्व शीर्षक पर आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में मुख्य अतिथि बतौर बोलते हुए राजा शंकर शाह विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. कपिल देव मिश्र ने अपने प्रतिनिधि वक्तव्य में कहा कि किसी भी भाषा का स्तर उस राष्ट्र का स्तर होता है, भाषा की उन्नति के प्रवाह को रोकने वाला देश अवनति के गर्त में धकेल दिया जाता है। भाषा मानव के अंतर्निहित स्वभाव को गति प्रदान करती है। यह राष्ट्र की संस्कृति के संस्कारों की चेतना की संवाहिका होती है। समारोह के सभापति खंडवा के ललित निबंधकार प्रो. श्रीराम परिहार ने कहा भाषा मनुष्य को सृष्टि के ज्ञानकोष का अनुपम उपहार है। हिंदी भाषा को रोमन लिपि में लिखना सबसे बड़ा पाप है। भाषा राष्ट्र की संस्कृति को समग्रता में देखने की दृष्टि देती है। वर्धा अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की हिंदी की विभागाध्यक्ष प्रो.प्रीति सागर ने कहा कि भाषिक प्रगति मानव की संवेदनाओं को पोषित, पल्लवित और परिष्कृत करती है, जिस पर मानवीय रिश्तों की बुनियाद सींचती है।
प्राचार्य प्रो. पी.आर. चंदेलकर ने अपने वक्तव्य में कहा कि शब्द तमीज की सभ्यता को हस्तांतरित कर पूर्ण मनुष्यता का निर्माण करते हैं। विषय विशेषज्ञ निर्मल चक्रधर ने कहा कि भाषा का संबंध आत्मा से है, जिसमें नैतिक चेतना से मानव मन को शुचिता प्रदान करने की अद्भुत सामर्थ्य होती है। प्रो. ऋषि कुमार ने आपने आमुख वक्तव्य में कहा कि भाषा भावना, इच्छा और मति के व्यक्त व्यवहार का जीवंत संचित निधि होती है। स्थानीय साहित्यकार गोवर्धन यादव ने भाषा को विचारों को परिष्कृत करने का व्यक्तित्व को गढ़ने का उपकरण बताया। प्रो.आर. एन. झारिया ने कहा कि भाषाई कौशल में अनुशासनहीनता राष्ट्र में अराजकता को जन्म देती है। सेमीनार संयोजक प्रो. लक्ष्मीकांत चंदेला ने कहा कि आज के भौतिक युग में भाषाई बोध की दृष्टि से हम वाह्य दृष्टि से विलासी उपकरणों से जितने भरे हैं, भीतरी रूप से उतने ही चुभते वाले रीते हैं। प्रो. टीकमणी पटवारी ने कहा कि विचारशून्यता अमर्यादित आचरण को जन्म देती है, भाषा के आत्मीय संप्रेषण कौशल हृदयों को गहराई से प्रसीदित करते हैं। प्रो. अर्चना सुदेश मैथ्यू ने कहा कि भाषा में व्यक्त विचार को स्वादिष्ट होते हैं जिसके परोसने से पहले चखना बहुत जरूरी है। शोध संगोष्ठी को प्रो.प्रदीप कुमार शर्मा, प्रो. बी. एल. इनवाती, प्रो. ऊषा भारती, प्रो. प्रतिभा श्रीवास्तव, प्रो. लक्ष्मीचंद, प्रो. शशिकांत चंदेला, प्रो. मुकेश ठाकुर, प्रो. मीनाक्षी कोरी, प्रो. सोसन्ना लाल, प्रो. प्रतिभा पहाड़े, छात्र चंद्रभान साहू और शिवम मानकर ने भी संबोधित किया।

