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हर एक दर्द पर

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विधि शम्भरकर, 
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, कवियत्री एवं यूट्यूबर

 हर एक दर्द पर आहें भरना भी मुनासिब नहीं,

कभी सिसकियों को खुला भी छोड़ दो,

 कह जाओ कभी कड़वा भी किसी से,

 बेशक़ फिर मिलना-जुलना छोड़ दो, 


ये भी एक उलझन है की इश्क़ में, 

थामो हाथ मेहबूब का और ज़माना छोड़ दो,

वो डूब के नशे में बमुश्किल भुलाता है उसको, 

फिर लोग कहते हैं आकर की पीना छोड़ दो,


अब रोज़ आती नहीं पर कभी-कभी आ जाती है तेरी याद,इल्तिज़ा है इतनी

तुम मेरी गली में आना छोड़ दो

क्या ये मुमकिन है,छुपाऊँ आँसू बारिशों मैं भी

कह दो किसी से हवाएं मोड़ दो


मैं गिर जाऊँगा अगर चला अकेले

लोगों अपना ये भरम तोड़ दो

गुलशन की राह पर दोनों ही मिलेंगे

फूल चुन लो, कांटे छोड़ दो


मैं डूबता-उतरता था, खिलखिलाहटों में अक्सर

तारीख में फिर मेरा बचपन जोड़ दो

बहुत मुश्किल से मिलती है थाह मंज़िल की,

जरुरत है तुम अपना सर्वस्व निचोड़ दो,


अँधेरे में कहीं रौशनी भी है थोड़ी 

यूँ करो की रुख उस तरफ मोड़ लो 

मैं चीखता रहा बहरों के बीच,

फिर तय किया की ख़ामोशी ओढ़ लो


कब तक देखोगे सिर्फ आँखों में ख्वाब,

उठो जागो सुबह के सारे पर्दे खोल दो 

वो ढँक लेती थी सारी मुश्किलें,उलझने 

बस बहुत हुआ ले चलो मुझे माँ के आंचल में छोड़ दो।।

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